नाटकों का अस्तित्व प्राचीन काल से ही विद्यमान है। नाटक प्राचीन काल से ही मनुष्य का सहचर रहा है। सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ साहित्य की भी उन्नति होती गई और नाटकों का सृजन भी हुआ। विभिन्न युगों में हुए सामाजिक, सांस्कृतिक तथा वेचारिक परिवर्तनों के अनुरूप ही नाटकों के स्वरूप में भी परिवर्तन आता रहा। नाटक को एक विशिष्ट साहित्यिक विधा माना जाता रहा है। नाटक का वर्तमान स्वरूप परंपरा में हुए बाहरी तथा आन्तरिक परिवर्तनों का परिणाम हे।
नाटक एक विशिष्ट साहित्यिक विधा है। नाटक की विशिष्टता नाटक की रचना प्रक्रिया को समझने में सहायक होती हे।
प्रत्यक्षत
नाटक को पढ़ने-सुनने के अतिरिक्त देखा भी जा सकता है। नाटक में शब्द के साथ-साथ रूप भी समहित होता है। नाटक परिस्थितियों को दृश्य रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। प्राचीन भारतीय आचार्यों ने काव्य के दो भाग किए हैं-श्रव्य काव्य तथा दृश्य काव्य।
प्रभाव की सघनता और तीकब्रता
नाटक हमारे सामने प्रत्यक्ष होता है। अन्य विधाओं की तरह हमें उसमें कल्पना का अधिक सहारा नहीं लेना पड़ता है। पढ़ने-सुनने की बजाय देखने का प्रभाव अधिक होता है। नाटक की प्रभाव क्षमता अन्य विधाओं से अधिक होती है, क्योंकि नाटक प्रत्यक्ष होता हे।
सामूहिकता
नाटक में लेखक भाषा के माध्यम से अपनी बात अभिनय के माध्यम से दर्शकों तक पहुँचता है। नाटक में सामाजिकता अन्य विधाओं से अधिक होती है।
नाटक की रचना प्रक्रिया और दर्शक
दर्शक नाटक के अनिवार्य अंग होते हैं। नाट्य प्रस्तुति की सफलता सिद्ध करने के लिए दर्शकों की उपस्थिति अनिवार्य है। नाटक देखने आये लोगों की विचारधारा अलग-अलग होती हे, इसलिए नाटक के प्रति उनके विचार भी भिन्न-भिन्न होंगे।
नाट्य प्रस्तुति और दर्शक
दर्शकों का व्यवहार नाट्य प्रदर्शन को प्रभावित करता है। दर्शकों की प्रतिक्रिया अभिनेताओं की मानसिक स्थिति को प्रभावित करती हे। नाटक प्रस्तुत करने वाले तथा देखने वालों के बीच जीवंत सम्पर्क होता है। इस दृष्टि से नाटक फिल्म, टेलीविजन आदि से अलग हे।
विभिन्न कलाओं का समावेश
नाटक में विभिन्न कलाओं का समावेश होता है। नाटक को प्रस्तुत करने के लिए अभिनेताओं की, रंगमंच की सजावट के लिए कुशल व्यक्तियों की वेशभूषा, नृत्य तथा मंच पर प्रकाश व्यवस्था करने के लिए कुशल लोगों की आवश्यकता होती है। नाटक को सफल बनाने के लिए इन सभी लोगों की आवश्यकता होती हेै।
सजीवता
सजीवता नाटक की एक अन्य विशेषता है। नाटक में घटनाओं को घटित होते दिखाया जाता है।
संवादात्मकता
नाटक को एक संवादात्मक कला माना जाता है। नाटक में सम्पूर्ण स्थिति का उद्घाटन पात्रों के संवादों तथा कार्यकलापों से ही होता हे।
तात्कालिकता
नाटक में तात्कालिकता का गुण होता है। अन्य विधाओं को एक बार से अधिक पढ़ा या सुना जा सकता हे, परन्तु नाटक में संवादों को दोहराया नहीं जाता हे।
गटक के तत्त्व
प्रत्येक विधा की कुछ संरचनात्मक विशिष्टताएं होती हैं। रचनाकार नये-नये प्रयोग करते रहते हैं। भारतीय हिन्दी नाटकों के निर्माण में भारतीय तथा पाश्चात्य नाट्य दृष्टियों का योग रहा है। भारतीय नाट्य सिद्धांत संस्कृत के नाटकों के आधार पर निर्मित हुए थे। भारतीय आचार्यों ने नाटक के तीन अनिवार्य तत्त्व बताये हैं-वस्तु, नेता तथा रस। पाश्चात्य आचार्यों ने नाटक के छह तत्त्व माने हैं-कथावस्तु, पात्र, देशकाल, संवाद, शैली ओर उद्देश्य।
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